लोकतंत्र का मतलब जवाबदेही, पारदर्शिता और कानून का शासन है। व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक हर कोई अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार है और अगर उससे सवाल किया जाए तो उसे लोगों को जवाब देना ही होगा। वर्तमान में और पूर्व में भी रही कई सरकारों और राजनीतिक संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे कई प्रमुख राजनेताओं से जब कभी भी उनके द्वारा किये गए गलत काम या भ्रस्टाचार के बारे में सवाल पूछे गए हैं , दुर्भाग्य से इन सवालों का जवाब देने के बजाय, कुछ अपवादों को छोड़कर, हर कोई दूसरों पर उंगली उठाने में व्यस्त है ताकि लोगों को विभिन्न बेतुके तर्कों से भ्रमित किया जा सके।
वी यस पांडेय
अभी हाल में ही हमने देश का पच्हत्तरवां गणतंत्र दिवस धूम धाम से मनाया। निःसंदेह हमारा भारत देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और इसपर हम सभी को गर्व है। लेकिन यह तथ्य भी एक सच है कि हमको एक देश के रूप में बहुत कुछ अभी भी करना बाकी है। दुर्भाग्यवश हम आज भी दुनिया के विकासशील देशों कि लाइन में भी दशकों से खड़े हैं और हमारी प्रतिव्यक्ति आय अन्य देशों की तुलना में बहुत ही कम है। जहाँ देश को आज व्याप्त व्यापक गरीबी , असमानता , अशिक्षा के विरुद्ध गंभीर प्रयास करने की महती आवश्यकता है वहीँ लोकतंत्र को और अधिक सशक्त बना कर विश्व के सामने एक जीवंत उदहारण प्रस्तुत करने की भी चुनौती विद्यमान है।
प्रसिद्ध दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल ने लोकतंत्र को बनाए रखने में रुचि रखने वाले सभी लोगों को चेतावनी देते हुए कहा था कि- “अपनी स्वतंत्रता को किसी महान व्यक्ति के चरणों में न रखें, या उसे ऐसी शक्तियां न सौंपें जो उसे अपनी संस्थाओं को नष्ट करने में सक्षम बनाएं”। इसी प्रकार के उदगार हमारे संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीम राव अंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को अपने भाषण में व्यक्त किया था कि “देश को जीवन भर सेवाएं देने वाले महान पुरुषों के प्रति कृतज्ञ होने में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन कृतज्ञता की भी सीमाएं होती हैं।” अपने तर्क को स्पष्ट करते हुए उन्होंने आयरिश देशभक्त डैनियल ओ’कोनेल को उद्धृत किया, जिन्होंने एक बार कहा था – “कोई भी व्यक्ति अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई भी महिला अपनी इज्जत की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता “। डॉ आंबेडकर ने लोगों को आगाह करते हुए कहा कि – “भारत में भक्ति या जिसे भक्ति का मार्ग या नायक-पूजा कहा जा सकता है, उसकी राजनीति में एक ऐसी भूमिका निभाती है जो दुनिया के किसी भी अन्य देश की राजनीति में निभाई जाने वाली भूमिका से कहीं अधिक है। धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है। लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा पतन और अंततः तानाशाही का एक निश्चित मार्ग है”।
लगभग आठ दशक पहले प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक और धर्मशास्त्री डिट्रिच बोनहोफर ने मूर्खता का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जो उनके अनुसार, एक ऐसी घटना से पैदा हुआ है जिसे डॉ. अंबेडकर ने व्यापक रूप से “भक्ति” कहा था। बोनहोफर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “ऑन स्टुपिडिटी” में लिखा है – “मूर्खता, द्वेष से भी ज्यादा ,अच्छाई का एक खतरनाक दुश्मन है। कोई भी बुराई के खिलाफ विरोध कर सकता है; उसे उजागर किया जा सकता है और यदि आवश्यक हो, तो बल प्रयोग से रोका जा सकता है। बुराई हमेशा अपने भीतर अपने विनाश का बीज लेकर चलती है, क्योंकि यह मनुष्यों में कम से कम बेचैनी की भावना तो जरूर छोड़ जाती है।” उन्होंने आगे लिखा, “यह तथ्य है कि मूर्ख व्यक्ति अक्सर जिद्दी होता है, लेकिन फिर भी हमें इस तथ्य से आँख नहीं मूँद लेना चाहिए कि वह स्वतंत्र ही नहीं है। उसके साथ बातचीत में, हमें वस्तुतः ऐसा लगता है कि हम किसी व्यक्ति के साथ नहीं, बल्कि नारों, आकर्षक शब्दों और इसी तरह की चीज़ों के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जिन्होंने उसे अपने वश में कर लिया है। वह एक जादू के प्रभाव में है, अंधा है, उसका दुरुपयोग किया जा रहा है और उसके साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा है। इस तरह एक नासमझ उपकरण बन जाने के बाद, मूर्ख व्यक्ति किसी भी बुराई को करने में सक्षम होगा और साथ ही यह देखने में भी असमर्थ होगा कि यह बुराई है। यहीं पर शैतानी दुरुपयोग का खतरा छिपा है, क्योंकि यही वह है जो हमेशा के लिए मनुष्यों को नष्ट कर सकता है।”
डॉ. अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को दिए गए अपने भाषण में हमारे लोकतंत्र के भविष्य के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने कहा, “हमारे देश में कई प्रकार की विचारधाराओं वाले राजनीतिक दल होंगे और विरोधी राजनीतिक पंथों वाली कई राजनीतिक पार्टियाँ होंगी। क्या हम भारतीय लोग देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? मुझे नहीं पता। लेकिन इतना तो तय है कि अगर पार्टियां धर्म को देश से ऊपर रखेंगी तो हमारी आजादी दूसरी बार खतरे में पड़ जाएगी और शायद हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी”।
यह स्पष्ट है कि लोकतंत्र का मतलब जवाबदेही, पारदर्शिता और कानून का शासन है। व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक हर कोई अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार है और अगर उससे सवाल किया जाए तो उसे लोगों को जवाब देना ही होगा। वर्तमान में और पूर्व में भी रही कई सरकारों और राजनीतिक संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे कई प्रमुख राजनेताओं से जब कभी भी उनके द्वारा किये गए गलत काम या भ्रस्टाचार के बारे में सवाल पूछे गए हैं , दुर्भाग्य से इन सवालों का जवाब देने के बजाय, कुछ अपवादों को छोड़कर, हर कोई दूसरों पर उंगली उठाने में व्यस्त है ताकि लोगों को विभिन्न बेतुके तर्कों से भ्रमित किया जा सके। निश्चित रूप से, अतीत में इस तरह की कार्रवाई से अपना दामन बचा पाने में कोई भी सफल नहीं हुआ और न ही आगे भी कोई राजनीतिज्ञ उसके आचरण के ऊपर उठे सवालों का उत्तर बिना दिए बच सकता है जो सार्वजनिक जीवन में अपने आचरण के बारे में गंभीर सवालों का सामना कर रहे हैं। डॉ आंबेडकर द्वारा व्यक्त की गई आशंकाएं कई मायनों में सच साबित हुई हैं। अयोग्य शासन, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और गैर-जिम्मेदार सत्ता की समस्या हमारी राजनीतिक प्रक्रिया में व्याप्त सड़ांध से पैदा हुई है, जो जाति, धर्म और अवैध धन के जाल में फंस गई है और भ्रष्टाचार ने हमारी शासन प्रणाली और सार्वजनिक जीवन में केंद्रीय स्थान ले लिया है। हमारे देश में “कानून का शासन” चलता है, लेकिन ऐसा लगता है कि यह केवल कागजों पर ही रह गया है। धनबल और ऊंचे संपर्कों और राजनीतिक संरक्षण वाले लोग सबसे जघन्य अपराध करके और अरबों रुपये की लूट करने के बाद भी बच निकलते हैं। हमारे देश में सत्ता के दुरुपयोग के मामलों का एक लंबा इतिहास रहा है, और कुछ मामलों को छोड़कर, शायद ही कोई ऐसा बेईमान राजनीतिक व्यक्ति पकड़ा गया हो और उसे सजा मिली हो।
हम सभी को यह पवित्र सिद्धांत याद रखना चाहिए कि यद्यपि बहुमत की इच्छा सभी मामलों में प्रबल होती है, लेकिन वह इच्छा प्रभावी होने के लिए उचित और न्यायपूर्ण भी होनी चाहिए; सभी नागरिकों के पास समान अधिकार होने चाहिए, जिनकी रक्षा समान कानूनों द्वारा की जानी चाहिए और उनका उल्लंघन करना आपराधिक कृत्य माना जाना चाहिए । आज जरूरत है कि हम साथी नागरिक एक दिल और एक दिमाग से एकजुट हो जाएं, और देश में सही मायने में कानून का राज स्थापित करें।

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